माँ बेटी
नीयत (कहानी संग्रह)             लेखिका :- विमला मीणा


सूर्य की कोमल पदचाप सुन चिड़ियों ने चहचहाहट कर खुले
गगन में पर फैला उड़ान भरली, उनका कोलाहल सुन मैंने आंख खोली
देखा अंधकार छटता जा रहा है। सूर्यदव अपनी लालिमा फैलाते हुए धरती
पर उजाला कर अपने उदय होने का संकेत दे रहें है। आज मेरे लिए सब
बदला-2 नजर आ रहा है। क्योंकि मैं अपने घर से कई कोसों दूर अपनी
बेटी श्यामा के साथ महानगर में थी जहां उसका पति नौकरी करता हैं।
सब अजनबी लोग, मेरे मन में कई प्रश्न उठते और निरुत्तर ही दब जाते
आखिर ये सब क्या कहेगें। मैं इनसे क्या कहूंगी हमारे यहाँ तो बेटी का
पानी भी नहीं पिया जाता लेकिन तभी अंतःमन से आवाज आती है मैं क्या
यहाँ साल छ: महीने रहने थोड़े ही आयी हूं मेरा बेटा अभय आयेगा और
जल्दी ही ले जाएगा। वो अपनी मां से इतना नाराज नही.... तभी आवाज
आती है माँ आ जाओ चाय पी लो।
मां- अभी आती हूँ।
अंदर 12 फीट लम्बा 12 फीट चौड़ा हाल है जिसमें डाइनिंग टेबिल लगी
है दीवारों पर फूलों की सीनरी शोभा बढ़ा रही है छत से लटका हुआ झूमर
आने जाने वालों का ध्यान अनायास ही अपनी तरफ खींच लेता है। हम
सब चाय पीने लगते है। कप-प्लेट लिए श्यामा अंदर जाती है सब व्यस्त
है कुछ ही देर में बच्चा स्कूल चला जाता है और घंटे भर बाद दामादजी भी
अपना लंच बोक्स लिए आफिस निकल जाते है। मैं नहा धोकर टी.वी. के
आगे बैठ जाती हूँ तभी श्यामा खाना लिए आती है।
श्यामा-"लो मां खाना खाओ"
मां- "अरे बेटी पता नहीं मन व्याकल हो रहा है अभिषेक की याद आ रही
है सुबह-सुबह मेरे पास दादी-दादी चिल्लाता आता गले में बांहे डाल

मुझसे बातें करता, बाय-बाय करता स्कूल चला जाता और आते ही
पटक दादी-दादी करता मेरे पास चला आता।"
स्यामा -"अरे मां अब खाना खाओ ठंडा हुआ जा रहा है। दोनों
साथ-साथ खाना खाती है श्यामा बर्तनों को उठा मां से आराम करने के
लिए कह चली जाती है। (बाहर एक बड़ा कमरा है जिसे मां के लिए दिया
जाता है। वहां पलंग है जहां मां आराम करती है। मां बेटी एक दूसरे की
पूरक होती है, जैसे आत्मा की आवाज। मां को श्यामा के घर किसी भी
चीज का दुख नही है वह अपनी दिनचर्या जो खुद-ब-खुद बन गयी है
उससे बहुत खुश है। प्रत्येक सन्डे, दामाद जी सबको घुमाने ले जाते है।
मां भूल गयी अकेलापन कैसा होता है। फिर भी वह मन ही मन कुक्ती
रहती है अवसाद उसकी जिन्दगी में छा सा गया है जो रह-रह कर बाद
आता है एक-एक दिन मां गिन-गिन कर निकालती है साथ रहकर भी
साथ नहीं है। श्यामा मा का चेहरा पढ़ लेती है। समझती भी है और बीती
बातों को कुरेदकर वह मां का दुख नहीं बढ़ाना चाहती। एक-एक करके
महीना व्यतीत हो गया रजनी और अभय ने एक बार भी मां का हाल चाल
नही पूछा श्यामा-मां आ जाओ दिन कब का निकल आया। मां कमरे से
धीरे-धीरे बाहर निकल बाबरूम जाती है और वापिस आती है। तो श्यामा
मा कादखकर महसूस करता हआज मां सारी रात नही सोयी.मां की
पलक भारी जान पड़ रही थी। लगा जैसे नींद उन्हें कर निकल गयी हो।
स्थामा को मा का दुख असहनीय लगने लगता है मां बेटी एक दसरे की
तकलाककाखामाशा ममाढलेती है। वह सोचने लगती है कितना
प्यार करता या अभयमा से पिताजी के गुजर जाने के बाद, मां ने जमा
कम नहीं किया, मैया की पढ़ाई पर पूरा खर्च कर दिया। आज जब वो
तीधर है उसे भो को पलकों पर विवना चाहिये तब नजरों से ही दूर कर
दिया था यही होता है पुत्र का कर्तव्य..? क्या ऐसी ही होती है
संस्कृति, क्या इसी दिन को देखने के लिए पुत्र प्राप्ति की कामना करते
हुए उसपर खोलवर किया जाता है। क्या बहू की दिली तमन्ना
सही रहती है की जिस बेटे को माने हजारी तकली उखकर, अपने बुडापे
की लाठी बनाया हो उस पर एकाधिकार जमाकर मां के खिलाफ करके
बहुत बड़ी जंग जीतना ही एकमात्र लक्ष्य होता है। जीवन में क्या बड़े
बुजूर्ग की. घर-परिवार समाज किसी को कोई जरूरत नहीं। आज के
आधुनिक युग में कहने को बेटा-बेटी में कोई अन्तर नहीं है लेकिन
मां-बाप अभी भी पुत्र की चाह रखते ही है लेकिन किसलिए? इसलिए
की विधवा मां को जिसने अपने पुत्र के लिए रुखा-सूखा खाकर साधारण
जीवन जीया, उसकी हर इवा पूरी की, हल्की तबीयत खराब होने पर
अपनी रातों की नीद न्यौछावर कर दी, वही बेटे उन्हें बुढ़ापे में सहारा देने
की बजाय उन्हें घर में जिल्लत की एक जिन्दगी जीने पर मजबूर करे,
यही स्थिति तो थी मां की, बात-बात पर रजनी का पक्ष लेना क्या मां का
अपमान नहीं था ? बुढ़ापे में खाने से ज्यादा जरूरत पड़ती है अपनों के
सम्बल सहानुभूति प्रेम और कोमल भावनाओं की जिन्हें हम दे नही पाते,
तभी... मां अंदर से नहा कर आती है।
मां-श्यामा एक कप चाय तो ला बेटा।" श्यामा- अभी लाई
मां।” (कुछ देर बाद श्यामा चाय लेकर आती है दोनों सोफे पर बैठी
खामोशी से चाय पीती है।) श्यामा-लगता है मां आज आप सोयी नही,
क्यों कोई बात है क्या ?" मां- हां बेटा आज अतीत मेरे सामने चलचित्र
की भांति याद आता रहा।" श्यामा -"आप चिन्ता ना करो, सब ठीक हो
जायेगा फिर यहां कोई परेशानी हो तो कहोमां-'नही, नही बेटा यहां
मुझे कोई तकलीफ नही यहाँ तो मैं बहुत खुश हूं, हेमन्त भी सुबह-शाम
मेरे पास बैठता है दुख-दर्द पूछता है ऐसा तो कभी अभय ने भी नही पूछा
सच तो ये है श्यामा मुझे अपने आप से ग्लानि होती है जब मैं सोचती
हैं कि तेरे जन्म पर मैंने तुझे बोझ समझा और कहीं न कहीं कोई न कोई
भेद-भाव मैंने जरूर किया। ऐसा नहीं है बेटा कि मैंने तुझे चाहा नहीं
मगर कहीं न कही कोई भूल अवश्य रही थी। तेरी शादी में तुझसे बिछुडने
का भय मुझे बहुत था साथ ही साथ एक बोझ दिल से उतर जाने की खुशी,
मुझे माफ कर देना बेटा।" श्यामा-मां आप क्या कह रही हो, मैं आपका
अंश हूँ मुझसे क्षमा कैसे ? मेरा तो जीवन ही आपकी देन है। अच्छे
नीयत (कहानी संग्रह
संस्कार दिये वो मेरी जिन्दगी की खुशियाँ है आपका आशीर्वाद मेरे लिए
देवीय प्रसाद है आप नही जानती मां आप मेरे लिए भगवान हो।
मा.श्यामा श्यामा-"हां मां" और मां के पैरों में आकर बैठ जाती
मां उसके ऊपर प्यार से हाथ फेरती है। श्यामा- "आपकी इसमें कोई
मलती नही दरअसल मां यही धारणा बनी आ रही है सदियों से एक दिन
मेनही बदल सकती इस सोच को बदलने के लिए इकाई यानी परिवार
समाजकी सोच को बदलना होगा व्यापक स्तर पर प्रयास करने होगें।
आप अकेली इसके लिए जिम्मेदार नहीं है अपने को दोष देने के बजाय
उसमें सुधार करना जरूरी है।, अरे मां तो इस धरती पर अपने बच्चों के
लिए एक अलग तोहफा है एक अनुपम कृति है। मां जिसमें ममता का
असीम अण्डार है, मां अपने बच्चों की खुशी के लिए धरती सा अथाह
धीरज लिए सब कुछ सहन कर लेती है उनकी खुशी पर नदी की मौज की
भांति उछल पड़ती है मां ! में भी तो मां हूँ ना तुषार की। हर वक्त तुषार
की ही फिक्र लगी रहती है मैंने जाना है मां, मां बनने के बाद बच्चे कहीं
भी रहे मां की आंखें उन्हें देखती रहती है। अब-आगे चलकर तुषार......
..."
मां- अरे बेटा हम भी क्या बातें.....1, चल दामाद जी आते होगें
खाना बनाना शुरू करें" दोनों रसोई घर में जाती है। अवकाश के दिन सब
अस्त-व्यस्त चलता है सुबह का खाना दोपहर के लिए रहता है। दामाद
जी सुबह-सुबह घूमने निकलते है तो घंटों में लौटते है तुषार भी अपने
दोस्तों के साथ खेलता रहता है। कुछ ही देर में खाना तैयार हो जाता है
दामाद जी तुषार को आवाज लगाते है सब मिलकर खाना खाते है हंसी
खुशी का माहौल चलता रहता है समय का चक्र निरन्तर अपनी गति से
चलता रहता है देखते-देखते 4 माह व्यतीत हो गये लेकिन कभी अभय
ने ये जानने की कोशिश नहीं की, आखिर मां कैसी है। लगता है अभय
की आंखों का पानी ही मर गया हो रहीम जी ने लिखा है-
"
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गये ना ऊबरै मोती मानस चून।।
दामाद जी के माथे पर मैंने कोई सिकन नहीं देखी, कोई परिचित
आता तब भी वो यही कहते कि मांजी को हम जबर्दस्ती लाये है हमें अच्छा
लगता है, मौजी का यही रहना। और मेरा अभय मेरा अपना अंश जिसे
मैंने अपने रक्त से सींचा आज उसे मेरी इतनी भी परवाह नहीं। एक
अव्यक्त वेदना से विहल उठती है उसके (अभि) पोते की यादें उसके सोये
प्राणों में जागृति देती है उसका खिलखिलाता चेहरा दिल हल्का कर देता
है। बहू ने अभि के बाद दूसरा बच्चा न होने देने की कसम खाली, एक
आस की भी क्या आस, आज मेरे एक बेटा और होता तो... लेकिन कोन
जाने कल को अभय और रजनी के साथ ऐसा हुआ तो उनके तो बेटी भी
नहीं। मेरे 20 साल के संस्कार कुछ दिनों में ही मिट गये तब यहां क्या
टिक सकते है। रोके से जो रूके नही वह वक्त है जिसे ना किसी की
परवाह है किसी छोटे-बड़े का भेद, वक्त जो बाल्यकाल से योवन तक
पहुंचाता है तो बुढ़ापा भी वक्त ही दिखाता है फिर चाहे वह राजा हो या
रंक। फिर ये बुढ़ापा क्या अभय ओर रजनी को नही आयेगा क्या भगवान
का इंसाफ अधूरा रहेगा। जो इंसान बोता है वही तो काटता है अपने अच्छे
और बुरे कर्मो का फल ही जीवन में खुशी और दुःख का रूप है कितना
कठिन होता है साथी के बिना जीवन का साथ देना, फिर बेटा भी साथ
छोड़ दे तो..... श्यामा के चार माह व्यतीत हो कर दिन आगे निकल गये।
श्यामा के घर एक और नन्हा मेहमान आने वाला है। श्यामा की दिली
तमन्ना यही है कि उसकी जिन्दगी में एक फूल सी सुकोमल कन्या जन्म
ले इसी के लिए वह भगवान के दर पे माथा टेकती है आखिर भगवान के
घर से पंचम शुभ तिथी गुरुवार को कन्या का जन्म होता है डा. बाहर।
आकर-" मां जी आपकी बेटी को बच्ची हुई है।" मां- "श्यामा कैसी है,
डॉक्टर साहब?" डॉक्टर-"श्यामा एकदम ठीक है मांजी, आप श्यामा से
मिल सकती है। मां दौड़कर श्यामा के पास जाती है और श्यामा से
कहती है-"कैसी हो बेटी" श्यामा-ठीक हैं मां। मां-"भगवान एक बेटा
और दे देता तो....." श्यामा- "मां। ये आप कह रही हो। मालम है मां
हम औरत ही औरत की सबसे बड़ी शत्र है आपको अपने ही घर में
जिल्लत का सामना करना पड़ रहा था, वो भी एक (औरत) आपकी बहु
रजनी से हम औरतों ने एक परम्परा को बढ़ाने में पुरुष का साथ दिया
बेटे की कामना करके । बेटा अनिवार्य है बेटी नही, फिर बेटी का भविष्य
उत्तम कैसे हो, उसके सपने साकार कैसे हो? उसकी जिन्दगी में खुशी
कैसे आ सकती है जब उसे उसकी नानी ही प्रथम झलक में खुश होकर
ना देखे। आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नही थी मां। एक पुत्र चाह की कामना
इस तरह दिलों-दिमाग पर हावी हो चुकी है कि इंसान ये तक भूल चुका
है कि नारी के बिना जीवन रंगहीन, रसहीन है। इसी घटिया सोच का
नतीजा है कि लड़कों की अपेक्षा लड़किया कम है। माँ आप या कोई और
खुश हो ना हो मगर ये मेरी वास्तविक छाया है मेरी पूजा का प्रतिफल,
ईश्वरीय वरदान है मैं बहुत खुश हूँ।"